तेरे माथे पे ये आँचल खूब है लेकिन….

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5 दिसम्बर मजाज़ लखनवी साहब की पुण्यतिथि पर इण्डो नेपाल पोस्ट की विशेष प्रस्तुति

डॉ खुर्शीद अहमद अंसारी

डॉ खुर्शीद अहमद अंसारी

मजाज़ लखनवी साहब की यौमे वफ़ात पर उस अज़ीम शायर को खराज ए अक़ीदत के साथ
मेरी तख़लीक़ मजाज़ साहब के वजन पर गुस्ताख़ी और माज़रत की ख़्वाहां है।

रक्स करती मुफलिसी है

हक प है पज़ मुर्दगी

जम गई है बर्फ लब पर

थम गई आवारगी

अब न कोई मेहरबां है

है न कोई आदमी

ए ग़मे दिल क्या करूँ

ऐ वहशते दिल क्या करूँ

मजाज़ साहब की इस मिसरे की अहमियत दौर ए हाज़िर के हालात पर बरजस्ता ज़हन में आया जब कि देश मे ख़वातीन के ऊपर हो रही वहशियाना और शैतानियत आमेज़ फेल का ग़लबा दिख रहा है, तो उनके इस शेर के दूसरे मिसरे की मानवियत से सोचता हूँ औरतें बख़ूबी वाकिफ़ हो सकें, पर काश!
प्रगति शील लेखक मंच के अग्रणी लेखको की जमात का एक नाम , असरार उल हक़ का जन्म फैज़ाबाद जिला उत्तर प्रदेश के रुदौली में हुआ। जां निसार अख़्तर के साले, जावेद अख़्तर के मामू, और फ़रहान अख़्तर के ममियाज़ाद नाना (यह संबंधों का क्रम इसलिए बता रहा हूँ,क्योंकि जिसके बारे में बात करने जा रहा हूँ उसे फ़रामोश कर दिया गया है) बचपन से पढ़ाई लिखाई से विमुख एक फक्कड़ विद्यार्थी असरार उल हक़ अक्सर फेल होते गए और साइंस की पढ़ाई छुड़वाकर पिता ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में आर्ट में दाखिला दिलवा दिया। अपने जुनूनी इश्क़ की कहानियों के लिए मशहूर यह युवा जल्द ही अपनी अदबी सलाहियतों के परचम बुलंद करता गया और यूनिवर्सिटी मैगज़ीन का संपादक बनाया गया। साहित्यिक परिवार में जन्मे असरार ने अलीगढ़ में अपनी शिक्षा अर्जन के दौरान ही अपनी मशहूर ओ मारूफ़ रचनाओं “साज़ ए नौ” और “आहंग” की तख़लीक़ करने के अलावा अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के लिए नज़र ए अलीगढ़ “यह मेरा चमन यह मेरा चमन…” लिखा जो अमर है। मैंने कई विद्यालयों और विश्वविद्यालयों के कुलगीत(तराने) सुने और पढ़े हैं लेकिन विश्वास कीजिये इतना अदबी, इतना जोश व वलवले वाला गीत नही सुना मैंने।


फानी बदायुनी, जोश मलीहाबादी, और अली सरदार जाफ़री का यह घनिष्ठतम मित्र और शागिर्द ए फ़ानी बदायूनी ज़िन्दगी के कठिन साल  रांची के पागल खाने मे भी बिताना पड़ा। हिंदी सिनेमा में उर्दू साहित्य के प्रचलन को अगर किसी कवि किसी शायर को  श्रेय दिया जाए तो मेरी नज़र में वो असरार उल हक़ हैं। अपनी बहुत ही शिद्दत की रोमानी शायरी और क्रांतिकारी नज़्मों के लिए  असरारुल हक़ साहब को हमेशा याद रखा जाएगा सयद अहमद ख़ान साहब की पैदाइश के 2 दिन बाद 19 अक्टूबर 1911 को हुआ जिन्हें अलीगढ़ तराना के लिए तो याद किया ही जायेगा लेकिन उनके रोमानी शेर ओ अदब से लबरेज़ गाना

छलके तेरी आँखों से शराब और ज़्यादा..”

“ऐ ग़म ए दिल क्या करूँ…ऐ वहशते ए दिल क्या करूँ

जी में आता है कि मुर्दा चाँद तारे नोंच लूं

एक दो का ज़िक्र क्या सारे के सारे नोंच लूं

ऐ ग़मे दिल क्या करूँ ऐ वहशते दिल क्या करूँ

शायद इस अज़ीम शायर असरारुल हक़ को आप पहचान गए इनका नाम मजाज़ लखनवी है जो निशात गंज की फ़रसुदा गलियों में सुकूत ए अबदी में ग़र्क़ हैं। आज के दिन उनकी यौम ए वफ़ात पर ख़िराज ए अक़ीदत के साथ दुआ कि मरहूम को अल्लाह जन्नत में दरजात बलन्द करे!!!

(लेखक जामिया हमदर्द यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर हैं)

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