…….तुझे याद हो कि न याद हो !24 फरवरी तलत महमूद की जयंती पर विशेष!

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पिछली सदी के तीसरे दशक में मात्र सोलह साल की उम्र में ग़ज़ल गायक के तौर पर अपनी पहचान बनाने वाले तलत को फिल्मों में पहचान मिली अनिल बिस्वास के संगीत निर्देशन में फिल्म ‘आरजू’ में दिलीप कुमार के लिए गाए गीत ‘ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले चल’ से।

ध्रुव गुप्त

(लेखक रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी हैं फिलवक्त स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं)

दिल में उतर जाने वाली भावुक, रेशमी और कांपती आवाज़ के मालिक मरहूम तलत महमूद अपने दौर के सबसे अलग पार्श्वगायक रहे। भावनाओं की मर्मस्पर्शी अदायगी के बूते उन्होंने अपने समकालीन मोहम्मद रफ़ी, मुकेश, मन्ना डे और हेमंत कुमार के बरक्स अपनी एक अलग पहचान बनाई थी। पिछली सदी के तीसरे दशक में मात्र सोलह साल की उम्र में ग़ज़ल गायक के तौर पर अपनी पहचान बनाने वाले तलत को फिल्मों में पहचान मिली अनिल बिस्वास के संगीत निर्देशन में फिल्म ‘आरजू’ में दिलीप कुमार के लिए गाए गीत ‘ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले चल’ से। गायकी का उनका सिलसिला चल तो निकला, लेकिन अपनी राह में उन्होंने ख़ुद कई बाधाएं खड़ी की। वे अपने को एक सफल अभिनेता के तौर पर भी देखना चाहते थे। खूबसूरत चेहरे वाले तलत को ‘वारिस’, ‘डाक बाबू’, ‘एक गांव की कहानी’ सहित कुछ फिल्मों में नायक की भूमिकाएं मिली भी, लेकिन महान अभिनेताओं के उस दौर में उनकी कोई पहचान न बन सकी। उसके बाद उन्होंने ख़ुद को गायन के क्षेत्र तक सीमित कर लिया।

गायक के तौर पर उनके कुछ कालजयी गीत हैं – चल दिया कारवां, हमसे आया न गया तुमसे बुलाया न गया, जाएं तो जाएं कहां, ऐ मेरे दिल कहीं और चल, सब कुछ लुटा के होश में आए तो क्या किया, तस्वीर बनाता हूं तस्वीर नहीं बनती, आसमां वाले तेरी दुनिया से जी घबड़ा गया, दिले नादां तुझे हुआ क्या है, ये हवा ये रात ये चांदनी, इतना न मुझसे तू प्यार बढ़ा, आंसू समझ के क्यों मुझे आंख से तूने गिरा दिया, जलते हैं जिसके लिए तेरी आंखों के दीये, मेरी याद में तुम न आंसू बहाना, फिर वही शाम वही गम वही तन्हाई है, मैं तेरी नज़र का सरूर हूं, मैं दिल हूं एक अरमान भरा, अश्कों में जो पाया है वो गीतों में दिया है, रात ने क्या क्या ख्वाब दिखाए, ऐ गमे दिल क्या करूं, प्यार पर बस तो नहीं है मेरा, तेरी आंख के आंसू पी जाऊं, होके मज़बूर मुझे उसने भुलाया होगा।

तलत के बारे में कहा जाता है कि उनके आवाज़ की रेंज बहुत सीमित थी। उल्लास, उमंग, श्रृंगार और शरारत उनके गले को रास नहीं आती थी। वे मूलतः दुख-दर्द और शायद अवसाद के गायक थे। उनके गीतों और उनकी आवाज़ की व्यथा उनके श्रोताओं के भीतर जीवन के साथ तारतम्य नहीं, एक एकांत, एक पलायन रचती थी। यही वजह है कि पिछली सदी के सातवें दशक के बाद हिंदी फिल्मों का संगीत लाउड होते ही उसमें तलत जैसी कोमल, रूहानी आवाज़ के लिए गुंजाइश नहीं बची। उनके ग़ैरफ़िल्मी और मंचीय गायन का सिलसिला उनके आख़िरी दिनों तक चलता रहा।

हमारे प्रेम को आकाश, व्यथा को बिस्तर, आंसुओं को तकिया अता करने वाले गायक तलत महमूद के यौमे पैदाईश पर उन्हें श्रद्धांजलि !

सग़ीर ए खाकसार

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