फ़िराक़ गोरखपुरी की जयंती पर विशेष-“मौत का भी इलाज हो शायद,ज़िन्दगी का कोई इलाज नहीं!!”-

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28 अगस्त उनकी यौम ए पैदाइश को दिल की गहराइयों से खिराज ए अक़ीदत

अंग्रेज़ी सरकार के प्रांतीय और भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयनित होने के बाद भी उन्होंने ग़ुलामी की यह नौकरियां छोड़ दीं।

डॉ खुर्शीद अहमद अंसारी

डॉ खुर्शीद अहमद अंसारी

“मौत का भी इलाज हो शायद
ज़िन्दगी का कोई इलाज नहीं!!”
रघुपत सहाय “फ़िराक़”
नेहरू को आधी अंग्रेज़ी आती है—😊
अक्सर वो पंडित नेहरू के बेहतरीन दोस्त ,अंग्रेज़ी ज़बान के बेहतरीन उस्ताज़ और उर्दू ज़बान का एक ग़ैर मामूली और बेपनाह ज़हीन क़लमकार यह कहता कि पंडित नेहरू को आधी अंग्रेज़ी आती है।


28 अगस्त 1896 को गोरखपुर के एक कुलीन परिवार में रघुपत सहाय फ़िराक़ गोरखपुरी का जन्म हुआ। उनकी शिक्षा दीक्षा उच्च कोटि की उर्दू, फ़ारसी और अंग्रेज़ी साहित्य में स्नातकोत्तर करने वाले फ़िराक़ नफ़ीस शख्शियत के मालिक थे। अंग्रेज़ी सरकार के प्रांतीय और भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयनित होने के बाद भी उन्होंने ग़ुलामी की यह नौकरियां छोड़ दीं।

प्रगतिशील लेखकों, कवियों साहित्यकारों के तत्कालीन भीड़ में उनका शुमार फ़ैज़ अहमद फ़ैज़,सर इक़बाल, कैफ़ी आज़मी और साहिर लुधयानवी जैसे अज़ीम शायरों में होने लगा था। इलाहाबाद विवि में अंग्रेज़ी साहित्य के प्रोफ़ेसर होना उन्होंने मंज़ूर किया। यह वो दौर था जब अंग्रेज़ो भारत छोड़ो का नारा इंक़लबिओं के सर चढ़ कर बोल रहा था सो फ़िराक़ साहब भी कैसे इस से अछूते रहते ।अपनी अंग्रेज़ी सरकार विरोधी नीतियों के कारण 18 महीने की जेल हुई।

लेकिन फ़िराक़ साहब आहो फुगा(दर्द व ग़म) का शायर जाना गया । अंग्रेज़ी साहित्य का शिक्षक और उर्दू के लाजवाब और बेहतरीन शायर की ज़िंदगी मे इलाहाबाद क़याम के दौरान की बेहद दिलचस्प कहानियां उनसे वाबस्ता रही हैं। दीर्घता के कारण उनका ज़िक्र यहां संभव नही लगता तो मुख्तसर करते हुए “गुल ए नग़मा” गुल ए रा’अना” “शबनमिस्तान” जैसे 20 शेरी मजमुओं का यह तख़लीक़ कार विश्व विद्यालय अनुदान आयोग का मानद प्रोफ़ेसर रहा और उंन्हे साहित्य, तख़लीक़, अदब और अपनी इन्फिरादियत के लिए हिंदुस्तानी हुकूमत ने “साहित्य अकादेमी” “ज्ञानपीठ” जैसे सरवोच्च सम्मान से नवाज़ा।


आज उनकी यौम ए पैदाइश को दिल की गहराइयों से खिराज ए अक़ीदत

“अक्सर तिरी फ़िराक़ ,तिरी जुस्तजू में हम
बाम ए सराब ए ग़म की मंज़िलों तक आ गए”

(लेखक जामिया हमदर्द विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)

सग़ीर ए खाकसार

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