नेपाल:-गेंद फिर अदालत में लेकिन पूर्व जैसे फैसले पर संशय के बादल

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यशोदा श्रीवास्तव

नेपाल की राजनीति दो राहे पर है। सत्ता की जंग वाया राष्ट्रपति फिर उच्च न्यायालय तक पहुंच गया है। पीएम ओली बहुमत खो चुके हैं। अचरज है कि उनकी पार्टी यूएमएल जिसके की वे अध्यक्ष हैं, के ही प्रमुख नेताओं सहित 26 सांसद उनके खिलाफ हैं। वे सब ओली के एवज में नेपाली कांग्रेस की सरकार  देखना चाह रहे हैं। ओली और पीएम पद के दूसरे दावेदार नेपाली कांग्रेस के शेर बहादुर देउबा को लेकर मधेशी दल भी दो फांड़ हो गए।उपेंद्र यादव गुट के 12 सांसद देउबा के पक्ष में हैं जबकि महंत ठाकुर गुट के 22 सांसद ओली के साथ हैं।

मजे की बात है कि ओली द्वारा 21 मई को अपने समर्थन में मधेशी और यूएमएल के सभी सांसदों के नाम वाली सूची राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी को सौंपी गई लेकिन देउबा ने भी अपने समर्थन में जो सूची राष्ट्रपति को दी उसमें भी मधेशी दलों के 12 उन सांसदों के हस्ताक्षर थे जो ओली की सूची में भी थे।इसी तरह यूएमएल के 26 वे सांसद देउबा की सूची में थे जो ओली की सूची में भी थे। राष्ट्रपति दोनों सूची देख दंग रह गईं।

इधर महंत ठाकुर ने देउबा के साथ गए पार्टी के 12 सांसदों पर ह्वीप के उलंघन का आरोप लगाकर उनकी सदस्यता रद करने का अनुरोध स्पीकर से किया तो ओली ने भी देउबा के साथ गए यूएमएल के 26 सांसदों की सदस्यता इसी आधार पर रद करने की मांग की।

सत्ता की जंग में ओली जान चुके थे कि वे बहुमत नहीं साबित कर पाएंगे इसीलिए उन्होंने विश्वास मत हासिल करने के लिए राष्ट्रपति द्वारा प्रदत्त एक महीने की समय सीमा से पहले राष्ट्रपति को बहुमत की कथित आंकड़े की सूची पेशकर बहुमत हासिल करने की कोशिश की लेकिन ओली के इस चाल से सतर्क विपक्षी खेमा ने राष्ट्रपति से अपनी और ओली की सूची को सत्यापित कराने की मांग कर दी।

अप्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रपति वही करने को मजबूर थीं जो ओली चाहते लिहाजा उन्होंने दोनों पक्षों की सूची पर गौर करने के बजाय एक बार फिर नेपाल को मध्यावधि चुनाव में झोंकते हुए नवंबर माह में 12और19की तारिख तय कर दी।इस अवधि तक ओली पीएम बने रहेंगे और उन्हीं के नेतृत्व में चुनाव होगा।ओली को आम चुनाव के पहले हर हाल सत्ता च्युत करने को अड़ा विपक्ष चुप बैठने वाला नहीं है।देउबा के नेतृत्व में 146 संसद सदस्य पंहुच गए उच्च न्यायालय।

उच्च न्यायालय तक पंहुचा इस बार का ओली बनाम संयुक्त विपक्ष का मामला बड़ा अजीब है। वरिष्ठ अधिवक्ताओं और न्याय विदों का मानना है कि किसी भी सरकार को बहुमत सिद्ध करने का प्लेटफार्म संसद का फ्लोर होता है, न कि न्यायालय।

उच्च न्यायालय में प्रतिवेदन दाखिलकर  संयुक्त विपक्ष ने एक जुटता साबित करने की कोशिश की है। प्रतिवेदन में नेपाली कांग्रेस के नेता शेरबहादुर देउबा,पुष्प कमल दहल प्रचंड, माधव कुमार नेपाल, झलनाथ खनाल,उपेंद्र यादव,दुर्गा पौडेल सहित देउबा पक्ष के 146 सांसदों के हस्ताक्षर हैं। संयुक्त विपक्ष का नेतृत्व पीएम पद के दावेदार देउबा कर रहे हैं। उच्च न्यायालय ने यदि ओली के खिलाफ संयुक्त विपक्ष के प्रतिवेदन पर गौर किया तो इसे ही विश्वास मत मानकर राष्ट्रपति के संसद भंग करने के फैसले को फलटकर देउबा को संसद के फ्लोर पर सरकार बनाने का मौका देने का निर्देश संसद के स्पीकर को दे सकता है। लेकिन यह उच्च न्यायालय के विवेक पर है।कानूनविदों के बीच यह चर्चा का विषय है और इसी के साथ यह आशंका भी है कि जरूरी नहीं इस बार भी न्यायालय विपक्ष की मंशानुरूप ही फैसला दे?

 बता दें कि मधेशी दलों की बनी मोर्चा जनता समाज पार्टी के अध्यक्ष महंत ठाकुर हैं तो एमाले कम्युनिस्ट पार्टी के अध्यक्ष स्वयं ओली हैं।महंत ठाकुर ओली और नेपाली कांग्रेस की रस्साकशी के बीच स्वयं पीएम की ताक में थे।यदि नहीं तो ओली ही रहें की नीति के तहत उन्होंने ओली के समर्थन में सांसदो को व्हीप जारी किया था। 

ओली के खिलाफ बना संयुक्त विपक्ष जिसमें मधेशी दल के उपेंद्र यादव गुट और ओली से नाराज चल रहे इनकी ही पार्टी के माधव नेपाल व प्रचंड गुट शामिल है। दरअसल न्यायालय की नजर ओली की कमजोर सरकार पर है लेकिन वह आर्थिक संकट से गुजर रहे नेपाल पर मध्यावधि चुनाव का बोझ डालने से बच रहा है।न्यायालय के एक अवकाश प्राप्त न्यायधीश के अनुसार फरवरी में उच्च न्यायालय ने राष्ट्रपति के संसद भंग के पिछले फैसले के खिलाफ जो फैसला दिया था,उसके पीछे मुख्य कारण यही था।

नेपाल में दूसरे आम चुनाव में अभी डेढ़ साल का वक्त है।राष्ट्रपति ने इस बार जो चुनाव की तिथि घोषित की है उस हिसाब से 12 और 19 नवंबर को चुनाव होना है और तबतक ओली कार्यवाहक पीएम बने रहेंगे और इन्हीं के नेतृत्व में चुनाव होगा।और तबतक आम चुनाव में एक साल ही बचेगा। नेपाल राजनीति के जानकारों का कहना है कि पिछले एक साल से नेपाल का राजनीतिक माहौल कमजोर हुआ है।इसके पीछे ओली की तमाम सारी नीतियां जिम्मेदार है जिसमें प्रमुख रूप से भारत के प्रति उनकी धारणा और उनका भारत विरोधी रुख रहा है।भारत के प्रति उनके इस धारणा से माधव कुमार नेपाल,झलनाथ खनाल जैसे लोग नाराज हुए। माओवादी केंद्र के नेता प्रचंड जैसे लोग ओली से किनारा कर लिए। अब सत्ता रूढ़ दल में जब ऐसा घमासान मचा हो,भारी अंतर्विरोध हो तो न्यायालय दूसरी बार फिर किसी कमजोर सरकार को शायद ही मौका दे। ओली के विकल्प में जहां तक नेपाली कांग्रेस को मौका देने की बात है, तो वे ही कहां अकेले बहुमत में है? कारण जो भी हो,आखिर उनके साथ भी तो वही लोग हैं जो ओली को अस्थिर करते रहे।देउबा को समर्थन दे रहे गैर नेपाली कांग्रेस के सदस्य चाहे मधेशी दल के हों या कम्युनिस्ट के,ये बहुत विश्वसनीय नहीं रहे।मधेशी दलों का इतिहास रहा कि ये जिसके खिलाफ लड़ते हैं, उसकी सरकार बनने पर उसके मंत्रिमंडल का हिस्सा होते हैं। ऐसे में भले ही शेरबहादुर देउबा ने न्यायालय में146 सांसदो की सूची सौंपकर अपने पक्ष में बहुमत होने का दावा किया हो लेकिन राष्ट्रपति के दूसरी बार के फैसले को पलटना आसान नहीं होगा।

जानकार कहते हैं कि नेपाल की राजनीति बहुत नाजुक दौर पर है, ऐसे में बहुत मुमकिन है कि आम चुनाव के साल भर पहले हो रहे मध्यावधि चुनाव को होने देने को उच्च न्यायालय इस बार शायद न रोके। हां यदि मध्यावधि चुनाव होता है तो यह देखना दिलचस्प होगा कि अभी ओली को सत्ता च्युत करने को आतुर प्रचंड, माधव नेपाल और बंटा हुआ सत्ता लोभी मधेशी दल अलग अलग चुनाव लड़ते हैं या ओली के यूएमएल के खिलाफ नेपाली कांग्रेस के साथ कोई मोर्चा बनाते हैं? फिलहाल अगर मगर और किंतु परंतु के बीच नेपाल का राजनीतिक, बुद्धिजीवी और व्यवसायी तबका यह मानता है कि राजनीतिक स्थिरता के लिए चुनाव ही एक रास्ता है भले ही वह मध्यावधि चुनाव ही क्यों न हो!

सग़ीर ए खाकसार

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