गुरु है मेरा अनमोल;-जे पी शुक्ल जी मेरे गुरु ही नहीं, अभिभावक भी हैं!

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मेरे गुरु होने के साथ साथ वो मेरे अभिभावक भी हैं। जब मैं घर से बाहर संघर्ष कर रहा था तब उन्होंने अपने घर में रहने की जगह दी। कभी कभी अपने हाथ से बनाकर खिलाया भी।

सुधीर मिश्र

वामपंथी झुकाव वाला अखबार द हिन्दू और उसके लंबे समय तक यूपी ब्यूरो चीफ थे हमारे गुरु जी श्री जेपी शुक्ल। गुरु जी शुद्ध दक्षिणपंथी हैं और एक साल तक आरएसएस के लिए कलिंगपोंग में फुलटाइमर स्वयंसेवक रहे थे। समय समय पर उनसे मेरी खूब बहस होती है। कई बार असहमति बनी रहती है। इसके बावजूद हमारे गुरु शिष्य के रिश्ते में कोई बहस आड़े नहीं आती। शायद इसलिए कि एक व्यक्ति के तौर पर मेरी उनमें पूर्ण आस्था है और जब बात विचारों और मुद्दों की आती है तो मैं हमेशा खुलकर अपना पक्ष उनके सामने रखता हूं। कहते हैं कामयाबी के शिखर पर पहुंचने के लिए संघर्ष की एक पथरीली राह होती है। ऐसे ही रास्तों से हमारे गुरु जी श्री जेपी शुक्ल भी गुजरे हैं। आज उनके घर गया तो इस बारे में खूब बातें हुईं।

अंग्रेजी दैनिक द हिन्दू के यूपी ब्यूरो चीफ की पोस्ट से रिटायर हुए बरसों बीत गए हैं। सुल्तानपुर जिले के एक गांव में रहने वाले हमारे सर पचास के दशक के आखिर में अपने चाचा श्री बैजनाथ शुक्ल के पास कोलकाता चले गए। वहां वह बीएससी के इरादे से गए थे। एडमिशन भी ले लिया। इसी दौरान उनकी मुलाकात राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कुछ पदाधिकारियों से हो गई। उनके चाचा कांग्रेसी थे। खद्दर पहनते थे, गांधी टोपी लगाते थे और कांग्रेस के उस ऐतिहासिक  अधिवेशन में भी शामिल हुए जिसमें नेता जी सुभाष चंद्र बोस ने गांधी जी के समर्पित प्रत्याशी पट्टाभि सीतारमैया को हरा दिया था। परिणाम आने के बाद गांधी जी ने कहा कि पट्टाभि की हार उनकी निजी हार है। गांधी जी की इस बात को सुनने के बाद नई कार्यकारिणी के सभी सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया। इससे सुभाष का चुनाव ही अप्रासंगिक हो गया। इस बात से नाराज उनके एक समर्थक ने सम्मेलन से वापस लौट रहे नेहरू जी को थप्पड़ मारने की कोशिश की। उस वक्त एक शख्स ने नेहरू जी के सामने आकर उस हमले को खुद पर झेल लिया। वह थे हमारे गुरु जी के चाचा जी श्री बैजनाथ शुक्ल। यह प्रसंग महज इसलिए कि एक कांग्रेसी के घर पर संघ का एक कार्यकर्ता तैयार हो रहा था।

सर का संघ पदाधिकारियों से वादा था कि जैसे ही बीएससी पास करेंगे, वह एक साल तक पूर्णकालिक स्वयंसेवी के तौर पर संघ के लिए काम करेंगे। परीक्षा के बाद जब यह बात उन्होंने चाचा जी को बतायी तो वह गुस्से से तमतमा गए। बात सुल्तानपुर में गांव तक पहुंची तो घर में रोना पीटना मच गया कि लड़का यह किस रास्ते पर चल पड़ा। इधर गुस्साए चाचा जी ने आरएसएस के सर संघ चालक गुरु गोलवरकर को एक कड़ा पत्र लिखा। इस पत्र में उन्होंने आरोप लगाया कि भतीजे को बरगलाकर संघ में शामिल किया गया है। आरएसएस को एक फासिस्ट संस्था और गुरु गोलवलकर को हिटलर का समर्थक तक लिख दिया। साथ में कहा कि उनके भतीजे को तत्काल संघ के काम से हटाकर परिवार में वापस जाने को कहें। इसके जवाब गोलवरकर जी ने उन्हें पत्र लिखकर उनके आरोपों का खंडन किया। उन्होंने लिखा था कि जगदम्बा प्रसाद शुक्ल संघ की विचारधारा से प्रेरित होकर आए हैं। उन्होंने ऐसा कोई काम नहीं किया जिसकी वजह से उन्हें निकाला जाए। वह स्वयं छोड़कर जाना चाहते हैं तो चले जाएं।

गुरु जी बताते हैं कि उन्होंने तय कर लिया था कि अब संघ कार्य ही करना है। वह कलिंगपोंग चले गए। उस समय कलिंगपोंग को दुनिया भर के जासूसों का अड्डा माना जाता था। मिशनरी के लोग वहां काफी सक्रिय थे। इसलिए आयरलैंड, ब्रिटेन, फ्रांस और अमेरिकी संस्थाएं वहां सक्रिय थे। इसके अलावा तिब्बती, चीनी, नेपाली और भूटान के लोग भी थे। कलिंगपोंग में दो पहाड़ियां थी। इनमें से एक पर इंटेलीजेंस ब्यूरो का दफ्तर था। दूसरी पहाड़ी पर श्रीरामकृष्ण मिशन वालों का एक मंदिर। उसमें एक लाइब्रेरी थी। इन दोनों पहाड़ियों के लोगों से गुरु जी का सम्पर्क था। उनका काम ही था दिन भर इधर उधर घूमना, लोगों से मिलना और संघ की विचारधारा को मजबूत करना। गुरु जी ने बताया कि हर हफ्ते रामकृष्ण मंदिर में एक साधु से उनकी मुलाकात होती थी। कभी कभी वह भोजन भी कराते थे। किताबें तो पढ़ने को मिलती ही थीं। एक दिन साधु ने गुरु जी के बारे में पूरी जानकारी ली। फिर उन्होंने कहा कि तुम्हारी यह उम्र अभी तुम्हारे परिवार और गृहस्थ जीवन के लिए है। साधु ने बताया कि मुर्शीदाबाद के सारागाछी में उनके गुरु स्वामी अखंडानंद जी के पास गुरु गोलवरकर भी दीक्षा लेने गए थे। वहां उन्हें इस बात का पता चला कि उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाए हैं। साधु ने कहा कि घर, समाज और देश किसी की भी जिम्मेदारी से विमुख नहीं होना चाहिए। उनकी बात मानकर हमारे सर ने अपने एक साल के कार्यकाल को पूरा किया और फिर सिलिगुड़ी के एक स्कूल में टीचर हो गए। इसके अलावा उन्होंने हिन्दुस्तान समाचार न्यूज एजेंसी के लिए लिखना भी शुरू कर दिया। यह साठ के दशक की शुरुआत का समय था। इस दौरान उनका नक्सलबाड़ी जाना हुआ। यहीं से नक्सल आंदोलन की शुरुआत हुई। सर ने बताया कि जिस दिन गए थे, उसी दिन वहां के आदिवासियों ने एक दरोगा टी वांगदी को तीर कमान से मार डाला था। यह उस दौर की पहली नक्सली हत्या थी जिसमें किसी सरकारी व्यक्ति को मारा गया।

इस दौरान सर ने नक्सली नेता कामू सान्याल और चारू मजूमदार के इंटरव्यू भी किए। करीब 11 साल तक वह टीचर रहे और पत्रकारिता भी करते रहे। उसके बाद 1973 में उन्होंने पीटीआई के लिए टेस्ट दिया। चयनित होने के बाद वह लखनऊ आ गए और कुछ वर्षों के बाद उन्होंने द हिन्दू अखबार ज्वाइन कर लिया। मेरा उनसे संपर्क 1993 में हुआ। मुझे पता है कि कैसे बड़े बड़े नेता उनके स्कूटर के पीछे बैठकर घूमा करते थे। उनमें मुलायम सिंह यादव, कलराज मिश्र और रामशरण दास की तो मुझे याद है। श्री यादव तो हर लोहिया दिवस पर पार्टी कार्यालय में होने वाले भाषण देने के लिए उन्हें बुलाते। बतौर रक्षा मंत्री कोई बड़ी एक्सक्लूसिव खबर देनी होती तो मुलायम सिंह उन्हें ही याद करते। एनयूजे के अध्यक्ष के तौर पर भरी प्रेस कान्फ्रेंस मे पत्रकारों के साथ अभद्रता कर रहे पूर्व चुनाव आयुक्त टी एन शेषन और पूर्व मूख्यमंत्री मायावती को फटकारने में कोई हिचक नहीं दिखायी। मैने देखा कि उनकी अपनी विचारधारा का उनकी पत्रकारिता पर कोई असर नहीं था क्योंकि वह हमेशा घटनाओं का तथ्यों के आधार पर ही विष्लेषण करते थे और न्यूज में विचार को कभी नहीं मिलाते। शायद इसीलिए हर राजनीतिक दल के नेताओं और ब्यूरोक्रेसी में उनका भरपूर सम्मान रहा।

अब बात करते हैं हमारे रिश्ते की। गुरु जी मेरे गुरु होने के साथ साथ अभिभावक भी हैं। जब मैं घर से बाहर संघर्ष कर रहा था तब उन्होंने अपने घर में रहने की जगह दी। कभी कभी अपने हाथ से बनाकर खिलाया भी। जब मैने घर बनाना शुरू किया तो शुरुआत के लिए एक गैस सिलेंडर, कुछ बर्तन और एक तख्त दिया। इन सबसे बढ़कर अनंत अपनापन जिसने मुझे किसी भी हाल में मुझे कभी टूटने नहीं दिया। आज यूं ही बस मन किया तो उनके बारे में लिख दिया। कोई मौका नहीं, कोई मौजू नहीं।

(लेखक नवभारत टाइम्स,लखनऊ के रेजिडेंट एडिटर हैं)

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