3 दिसम्बर पुण्यतिथि पर विशेष:कहेंगे लोग कि बेकल कबीर जैसा था

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फरीद आरज़ू

बलरामपुर,3 दिसम्बर।इण्डो नेपाल पोस्ट


फटी कमीज नुची आस्तीन कुछ तो है,
ग़रीब शर्माे हया में हसीन कुछ तो है!
लिबास क़ीमती रख कर भी शहर नंगा है,
हमारे गांव में मोटा महीन कुछ तो है!!
जैसी बेमिशाल शायरी के जरिये मुशायरा और कवि सम्मेलनो के मंचो पर पांच दशको से अधिक एक क्षत्र राज करने वाले मशहूर शायर पद्मश्री स्वर्गीय बेकल उत्साही की गितनी देश के महनतम शायरो मे होती है।गीत, गजल, नज्म, मुक्तक, रूबाई,दोहा आदि विधाओ मे दो दर्जन से अधिक पुस्तके लिखने वाले पूर्व राज्यसभा सदस्य पद्मश्री स्वर्गीय बेकल उत्साही का तीन दिसम्बर को तीसरी पुण्यतिथि है।स्वर्गीय उत्साही भले ही दुनिया मे नही है,लेकिन उनके चाहने वाले उन्हे आज भी बडे शिद्दत के साथ याद करते है।

नेपाल सीमा से सटे उत्तर प्रदेश मे बलरामपुर जिले के उतरौला तहसील स्थित रमवापुर गौर मे एक जून 1924 को जन्मे बेकल उत्साही का असली नाम मोहम्मद शफी खान है,लेकिन गाँव मे लोग आपको अक्सर भुल्लन भैया के नाम से भी पुकारते थे।बेकल उत्साही उपनाम के पीछे एक इतिहास है।बेकल उपनाम मुस्लिम सूफी हाजी वारिस अली के आस्ताना देवां शरीफ (बाराबंकी) से आपको 1949 मे मिला था।उत्साही उपनाम देश के प्रथम प्रधानमंत्री स्वर्गीय पंडित जवाहर लाल नेहरू ने सन 1952 मे आपकी रचनाओ से प्रभावित होकर सर्वप्रथम उत्साही कहकर सम्बोधित किया ।तभी से आप साहित्यिक मंचो पर बेकल उत्साही के नाम से प्रसिद्ध हुए।इस बात की तस्दीक आपने अपने इस शेर मे स्वंय किया है-

दर से वारिस पाक के मिला है बेकल नाम!
उत्साही उपनाम है नेहरू का इनआम!!

बायें से बेकल साहब की बेटी सादिया अफ़रोज़, नाती राशिद मिर्ज़ा,बेटी आरिफा उत्साही,पत्रकार् सग़ीर ए खाकसार,शायर ज़ाहिद आज़ाद झंडानगरी

बेकल उत्साही ने आजादी के समय एक सिपाही के तौर पर देश के कोने कोने मे जाकर देश की आजादी के लिए गीत व नज्म पढे और लोगो को जागरूक किया।बेकल उत्साही ने आचार्य नरेन्द्र देव और डा०राम मनोहर लोहिया के साथ कार्य किया।आप इन दोनो के साथ 1954 मे नहरी टैक्स के विरोध मे बहराइच और फतेहढ जेलो मे बंद रहे।आपके वतन परस्ती का सुबूत आपके इस शेर से मिलता है-

ये सब है कोई पूंजी नही है मेरे पास!
मेरे बदन पे जमीन-ए-वतन की धूल तो है!!

बेकल उत्साही ने 1954 से लगातार हिन्दी,उर्दू मासिक पत्र पत्रिकाओं मे अपना लेखन कार्य करते रहे।मुशायरो और कवि सम्मेलनो के माध्यम से देश विदेश मे हिन्दी और उर्दू भाषा के अलावा हिन्दुस्तानी साहित्य के प्रचार-प्रसार के साथ देश का नाम रौशन किया।बेकल उत्साही ने दो दर्जन से अधिक पुस्तको का सृजन किया।इनमे बापू का सपना,विजय बिगुल,नगमा व तरन्नुम,निशात-ए-जिन्दगी,शुरूर -ए-जांविदा,लहके बगिया महके गीत,पुरवाइंया,कोमल मुखडे बेकल गीत,अपनी धरती चाँद का दर्पन,गजल सांवरी,रंग हजारो खुशबू एक,वद्दोहा,अंजुरी भर अजोरी,गजल गंगा,यमुना किनारे के अलावा धरती सदा सुहागिन आदि शामिल है।बेकल उत्साही के साहित्यिक सेवाओ पर नजर दौडाने पर नि:संदेह हर कोई कह उठेगा कि आप अपने दौर के नजीर और कबीर थे।आपने अपनी तुलना कबीर और नजीर से स्वंय की है-

सुना है मोमिन-ओ-“गालिब” न मीर जैसा था,
हमारे गाँव का शायर “नजीर” जैसा था!
छिडेगी देर-ओ-हरम मे ये बहस मेरे बाद,
कहेगे लोग कि बेकल “कबीर” जैसा था!!

इण्डो नेपाल मुशायरे में अपना कलाम पढ़ते बेकल उत्साही साहब

बेकल उत्साही को उनकी जिन्दगी मे साहित्यिक सेवाओ के लिए देश,विदेश मे अनेको पुरस्कारो से नवाजा गया है।इनमे भारत सरकार का पद्मश्री अवार्ड से लेकर उत्तर प्रदेश सरकार का यश भारती पुरस्कार शामिल है।आपके साहित्यिक सेवाओ को देखते हुए भारत सरकार ने आपको राज्य सभा तक पहुचाया।आपके जीवन और काव्यो पर कई विश्वविद्यालयो मे शोध कार्य भी हो चुका है।बेकल उत्साही 3 दिसंबर 2017 को 88 साल की उम्र मे दुनिया को अलविदा कह गये।

स्वर्गीय बेकल उत्साही की पुत्री आरिफा बेकल उत्साही ने बताया कि उनके वालिद को गाँव की मिट्टी से बहुत लगाव था।वह देश दुनिया का सफर करने के बाद अपने वतन बलरामपुर मे ही सुकून महसूस करते थे।आरिफा ने कहा कि वह चाहती है कि उनके वालिद के नाम पर जिले मे एक लाइब्रेरी बने ।जिसमे साहित्यिक पुस्तके हो और यही उनके वालिद की भी दिली इच्छा थी।स्वर्गीय उत्साही भले ही आज दुनिया मे नही है,लेकिन उनकी रचनाएं उनके जीवंत होने का एहसास करा रही है।

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