भोजपुरी के शेक्सपियर “भिखारी ठाकुर” की जयंती पर विशेष:”रंगवा में भंगवा परल हो बटोहिया”!

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बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से निकलकर उनकी ख्याति पूरे उत्तर भारत और नेपाल के उन इलाकों में फैल गई थी जहां भोजपुरी भाषी लोग बसते थे या जहां भोजपुरिया श्रमिकों के अस्थायी ठिकाने बन गए थे। देश के बाहर उन देशों में भी उन्हें देखने-सुनने की उत्सुकता थी

भिखारी ठाकुर ने अपनी मंडली के साथ देश में में ही नहीं, मारीशस, फीजी, केन्या, नेपाल, ब्रिटिश गुयाना, सूरीनाम, यूगांडा, सिंगापुर, म्यांमार, साउथ अफ्रीका, त्रिनिदाद सहित उन तमाम देशों में भी पहुंचकर न सिर्फ भारतीय मूल के लोगों का स्वस्थ मनोरंजन किया, बल्कि उन्हें अपनी जड़ों से परिचित भी कराया।

ध्रुव गुप्त

(लेखक रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी हैं ,फिलवक्त स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं)

लोकभाषा भोजपुरी की साहित्य-संपदा की जब चर्चा होती है तो सबसे पहले जो नाम सामने आता है, वह है स्व भिखारी ठाकुर का। वे भोजपुरी साहित्य के ऐसे शिखर हैं जिसे न उनके पहले किसी ने छुआ था और न उनके बाद कोई उसके आसपास भी पहुंच सका। भोजपुरिया जनता की जमीन, उसकी सांस्कृतिक और सामाजिक परंपराओं, उसकी आशा-आकांक्षाओं तथा राग-विराग की जैसी समझ भिखारी ठाकुर को थी, वैसी किसी अन्य भोजपुरी कवि-लेखक में दुर्लभ है। वे भोजपुरी माटी और अस्मिता के प्रतीक थे। लगभग अनपढ़ होने के बावजूद बहुआयामी प्रतिभा के धनी भिखारी ठाकुर एक साथ कवि, गीतकार, नाटककार, निर्देशक, लोक संगीतकार और अभिनेता थे। अपनी मिट्टी से गहरे जुड़े इस ठेठ गंवई कलाकार ने भोजपुरी की प्रचलित नाटक, नृत्य, गायन और अभिनय की शैलियों में जो अभिनव प्रयोग किए थे, वे दूरगामी सिद्ध हुए। उनकी नई नाट्य-शैली को बिदेसिया कहा गया। आज भी बिदेसिया भोजपुरी की सबसे ज्यादा लोकप्रिय नाट्य-शैली है। सामाजिक समस्याओं और विकृतियों को टटोलने और उनके खिलाफ आवाज उठाने वाले उनके नाटकों के कारण साहित्य के जानकार भिखारी ठाकुर को भोजपुरी के शेक्सपियर कहते हैं। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने उन्हें देखने-सुनने के बाद उन्हें ‘अनगढ़ हीरा’ कहा तथा सुप्रसिद्ध नाटककार और लेखक जगदीशचंद्र माथुर ने उन्हें भरत मुनि की परंपरा का कलाकार बताया था।

बिहार के सारण जिले के कुतुबपुर गांव के एक गरीब नाई परिवार में जन्मे भिखारी ठाकुर का बचपन अभावों में बीता था। उन्हें नाम मात्र की ही स्कूली शिक्षा प्राप्त हो सकी। किशोरावस्था में रोजगार की तलाश में वे बंगाल के खडगपुर गए जहां उनके एक रिश्तेदार ने नाई के पारंपरिक काम में लगा दिया। नाईगिरी से समय निकाल कर वे लोगों के सामने रामायण का पाठ करते थे। खड़गपुर से वे नए रोजगार की तलाश में पुरी गए जहां मज़दूरों के साथ रहते हुए उन्हें लोक गायिकी का चस्का लगा। बरसों तक मज़दूर दोस्तों के साथ स्वान्तः सुखाय गाते रहे। लोगों ने हौसला अफ़ज़ाई की तो उन्हें ख्याल आया कि लोक गायिकी को पेशा भी बनाया जा सकता है। इरादा मज़बूत हुआ तो एक दिन रोजगार छोड़कर घर लौटे और गांव में कुछ मित्रों को साथ लेकर एक छोटी-सी रामलीला मंडली बना ली। रामलीला के मंचन में उन्हें थोड़ी-बहुत सफलता ज़रूर मिली, लेकिन यह उनका गंतव्य नहीं था। उनके भीतर के रचनाकर्मी और कलाकार ने बेचैन किया तो वे खुद नाटक और गीत लिखने और उन्हें गांव-गांव घूमकर मंचित करने लगे। नाटकों में सीधी-सादी लोकभाषा में गांव-गंवई की सामाजिक और पारिवारिक समस्याएं होती थीं जिनसे लोग सरलता से जुड़ जाया करते थे। भिखारी ठाकुर खुद एक सुरीले गायक थे, इसीलिए लोक संगीत उन नाटकों की जान हुआ करता था। फूहड़ता का कहीं नामोनिशान नहीं। उनके तमाम नाटक परिवार के साथ देखने लायक होते थे।

भोजपुरी समाज के अभिजात्य वर्ग द्वारा उनके नाटकों को गंवई कहा गया और उन्हें व्यक्तिगत रूप से अपमानित और हतोत्साहित करने की तमाम कोशिशें हुईं। उन्हें नचनिया भी कहा गया, लौंडा भी और भिखरिया भी। उनकी जाति को लेकर उनके साथ दुर्व्यवहार हुए। सामंतों के तमाम अपमान सहते हुए भी उनकी मंडली ने लोकनाट्य और लोकसंगीत का अलख जगाए रखा। विरोध के बावजूद धीरे-धीरे उनके संगीत प्रधान नाटकों की ख्याति बढ़ती चली गई। गांवों के सीधे-सरल लोगों ने उनके नाटकों और गीतों में अपनी छवि और अपनी समस्याएं देखीं और उनसे तादात्म्य बिठाया। उस दौर में उनके नाटकों की लोकप्रियता का आलम यह था कि उन्हें देखने-सुनने के लिए लोग खुशी-खुशी दस-दस, बीस-बीस कोस की पैदल यात्राएं करते थे।

भिखारी ठाकुर ने जिन नाटकों की रचना की थी, उनमें से कुछ प्रमुख हैं – बिदेसिया, गबरघिचोर, भाई विरोध, बेटी बेचवा, कलयुग प्रेम, विधवा विलाप, गंगा अस्नान, ननद-भौजाई संवाद, पुत्र-वध, राधेश्याम बहार, द्रौपदी पुकार, बहरा बहार और बिरहा-बहार। उस दौर के प्रचलित नाटकों से अलग कथ्य और शैली में लिखे अपने नाटकों को वे खुद नाटक नहीं, नाच या तमासा कहते थे। उन नाटकों के पात्र समाज के श्रमिक, किसान और अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे आम लोग होते थे। अपने कुछ मित्रों और नाटक प्रेमियों के बहुत जोर देने के बाद भी भिखारी ठाकुर ने राजाओं, जमींदारों अथवा प्रचलित लोकनायकों की गाथाएं नहीं लिखीं। पूछने पर वे कहते थे – ‘राजा-महाराजाओं या बड़े-बड़े लोगों की बातें ज्ञानी, गुणी, विद्वान लोग लिखेंगे। मुझे तो अपने जैसे मुह्दूबर लोगों की बातें लिखने दें। ‘बिदेसिया’ आज भी उनका सबसे लोकप्रिय नाटक है जिसमें एक ऐसी पत्नी की विरह-व्यथा है जिसका मजदूर पति रोजी कमाने शहर गया और किसी दूसरी स्त्री का हो गया। ‘बिदेसिया’ में उन्होंने बिहार से गांवों से रोजी-रोज़गार के लिए विस्थापित होने वाले लोगों की पीड़ा और संघर्षों को स्वर दिया है। इस नाटक की करुणा पढने-सुनने वालों को गहरे तक छूती है। अपने लगभग तमाम नाटकों में उन्होंने स्त्रियों और दलितों की कारुणिक स्थिति के चित्र भी खींचे और उनके संघर्षों को भी अभिव्यक्ति दी। भोजपुरिया इलाकों में व्याप्त कुप्रथाओं और अंधविश्वासों पर चोट उनके नाटकों का मुख्य उद्धेश्य होता था। उन दिनों गरीबी और दहेज से तंग आकर छोटी जाति के कहे जाने वाले लोगों में ऊंची जातियों में अपनी बेटी बेचने की प्रथा भी थी और अपनी कमउम्र लड़कियों की शादी बूढ़े, अनमेल वरों के साथ करने की भी। इन कुप्रथाओं के विरुद्ध उन्होंने ‘बेटी वियोग’ और ‘बेटी बेचवा’ जैसे नाटक लिखे। इन नाटकों में बेमेल ब्याही गई लड़कियों का दर्द कुछ ऐसे मुखर हुआ है।
रुपिया गिनाई लिहलs
पगहा धराई दिहलs
चेरिया से छेरिया बनवलs हो बाबू जी
बूढ़ बर से ना कईलs
बेटी के ना रखलs खेयाल
कईनी हम कवन कसूरवा हो बाबू जी !

उस समय भिखारी ठाकुर के नाटकों का असर भोजपुरी इलाकों में इतना हुआ था कि कई जगहों पर खुद बेटियों ने बेमेल शादी करने या बिकने से मना कर दिया। कई जगहों पर गांव वालों ने ही ऐसे वरों को गांव से खदेड़ दिया। बेमेल शादियों के कारण असमय विधवा हुई स्त्रियों की पीड़ा उनके नाटक ‘विधवा विलाप’ में शिद्दत से अभिव्यक्त हुई है। उनके नाटक पर पिछली सदी के छठे दशक में एक सफल भोजपुरी फिल्म भी बनी थी जिसमें उन्होंने अभिनय भी किया था। सामजिक चेतना के उद्घोषक भिखारी ठाकुर को भोजपुरी में स्त्री विमर्श और दलित विमर्श का जन्मदाता माना जाता है।

भिखारी ठाकुर पर अपनी कुछ रचनाओं में सामंती मूल्यों और अंधविश्वासों के समर्थन के आरोप भी लगे हैं। उनकी रचनाओं से गुजरते हुए यह अनुभव होता है कि ऐसा उन्होंने सायास नहीं किया है। उनसे यह भूल संभवतः शिक्षा के अभाव और गांवों में सामंतवाद की गहरी जड़ों की समझ न होने की वजह से हुई। कुछ विरोधाभासों के बावजूद एक समतावादी समाज का सपना उनकी कृतियों का मूल स्वर है। उनकी हर रचना में जाति-पाति और भेदभाव से ऊपर उठकर एक मानवीय समाज की परिकल्पना मौजूद है। जीवन में कदम-कदम पर जातिगत भेदभाव और अपमान की पीड़ा झेलने वाले भिखारी ठाकुर में इस भेदभाव के खिलाफ मात्र असंतोष नहीं, एक गहरा प्रतिरोध भी दिखता है। उनका यह प्रतिरोध उनके नाटक ‘नाई बहार’ में ज्यादा मुखर हुआ है जिसमें उन्होंने कहा है – सबसे कठिन जाति अपमाना। भिखारी ठाकुर की रचनाएं ऊपर से जितनी सरल दिखाई देती हैं, अपनी अंतर्वस्तु में वे उतनी ही जटिल और गहरी हैं। उनकी रचनाओं के भीतर हर जगह एक आंतरिक करुणा और व्यथा पसरी हुई महसूस होती है। एक ऐसी करुणा और व्यथा जो तोड़ती नहीं, भरोसा देती है कि रास्ता कहीं से भी खुल जा सकता है।

भिखारी ठाकुर और उनकी नाटक मंडली ने उस काल में लोकप्रियता का शिखर छुआ था। बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से निकलकर उनकी ख्याति पूरे उत्तर भारत और नेपाल के उन इलाकों में फैल गई थी जहां भोजपुरी भाषी लोग बसते थे या जहां भोजपुरिया श्रमिकों के अस्थायी ठिकाने बन गए थे। देश के बाहर उन देशों में भी उन्हें देखने-सुनने की उत्सुकता थी जहां भोजपुरी भाषी लोगों की एक बड़ी संख्या रोजगार की तलाश में जा बसी थी। ऐसे प्रवासी भारतियों के अनुरोध पर भिखारी ठाकुर ने अपनी मंडली के साथ देश में में ही नहीं, मारीशस, फीजी, केन्या, नेपाल, ब्रिटिश गुयाना, सूरीनाम, यूगांडा, सिंगापुर, म्यांमार, साउथ अफ्रीका, त्रिनिदाद सहित उन तमाम देशों में भी पहुंचकर न सिर्फ भारतीय मूल के लोगों का स्वस्थ मनोरंजन किया, बल्कि उन्हें अपनी जड़ों से परिचित भी कराया।

1 9 71 में भिखारी ठाकुर की मृत्यु हो गई। उनके बाद उनकी नाटक मंडली ने लगभग एक दशक तक उनकी नाट्य-शैली को कमोबेश जीवित रखा,लेकिन उसमें भिखारी का जादू नहीं था। धीरे-धीरे उनकी मंडली हाशिए पर जाकर बिखर गई। उनके परिदृश्य से लुप्त हो जाने के बाद भोजपुरी क्षेत्र में उनकी नाट्य-शैली पर पहले से चला आ रहा ‘लौंडा नाच’ हावी हो गया। लौंडा नाच भोजपुरी की वह नाट्य शैली थी जिसमें पुरुष महिलाओं के वस्त्र पहनकर, उन्हीं के हावभाव में नृत्य भी करते हैं और संवाद भी बोलते हैं। लौंडा नाच अभी भी गांवों में कभी-कभार दिख जाता है, लेकिन इसके भी चाहने वालों की भीड़ अब गायब हो चली है। दरअसल यह दौर ही ऐसा है जब गांवों और कस्बों में सिनेमा हॉल की बढ़ती संख्या और घर-घर में मौजूद टेलीविज़न सेट ने मनोरंजन के साधन के रूप में नाटक, नौटंकी, नाच सहित सभी लोककलाओं को लगभग पूरी तरह विस्थापित कर दिया है।

सग़ीर ए खाकसार

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