….खिड़कियां खोलता हूँ, तो ज़हरीली हवा आती है:30 दिसम्बर,दुष्यंत की पुण्यतिथि पर विशेष

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बाग़ी ए ज़माना माज़ी ओ हाल:दुष्यंतकुमार

आत्मा दुष्यंत की, मेरे रगों में दौड़ जाए
लौ बग़ावत की मिरी जाँ में भी जलनी चाहिए!

डॉ खुर्शीद अहमद अंसारी

1 सितंबर,1933 को नवादा, बिजनोर के इक गांव में दुष्यंत कुमार जी का जन्म हुआ। एक सामान्य परिवार में जन्मे दुष्यंत ने इलाहाबाद विवि से हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर शिक्षा की उपाधि अर्ह की।
दुष्यंत की फितरत मे बग़ावत थी शायद यही वजह है कि आधुनिक हिंदी साहित्य के रचनाकारों और साहित्य कारो में मेरे अल्प ज्ञान के दायरे में जितने कवि हुए हैं उनमें दुष्यंत कुमार की रचनाएं हमेशा हृदय और आत्मा को झिझोड़ कर रख देती हैं।

अरविंद केजरीवाल /अन्ना आंदोलन के भृष्टाचार विरोधी जनांदोलन की पंच लाइन हो या स्टार टीवी का “सत्यमेव जयते” सीरियल सभी मे इस महान कवि की रचनाओं की पंक्तियों ने बेहद प्रभावशाली भूमिका निभाई थी। दुष्यंत कुमार की साहित्यिक कृतियों को पढ़ते वक़्त आपको यह एहसास ज़रूर आता है कि उनकी ग़ज़लों उनकी रचनाओं में भगतसिंह , अशफ़ाक़ या बिस्मिल जैसे जज़्बात और एहसास के अलावा देश प्रेम और वर्तमान सामाजिक और राजनैतिक तंत्र के विरुद्ध परिवर्तन की अदम्य इच्छा दिखाई देती है।

राजनैतिक व्यवस्था, सामाजिक विषमता के विरुद्ध एक सशक्त आवाज़ मात्र 41 वर्ष की आयु में आज 30 दिसम्बर 1975 को इस जहान ए फ़ानी को अलविदा तो कह गया लेकिन एक फ़िक्र,एक फ़लसफ़ा ए हयात हमारे लिए छोड़ गया। 2009 में भारत सरकार ने उनके नाम पर डाक टिकट जारी किया और भोपाल में उनका संग्रहालय बनाया गया। लेकिन स्मार्ट सिटी के ख़्वाब ने उस धरोहर को रेज़ा रेज़ा कर दिया।क्योंकि वो संग्रहालय जिस भूमि के टुकड़े पर बनना था वो स्मार्ट सिटी के संकल्पना पर एक दाग़ सा था सो तंत्र की ताक़तवर मशीन ने उस दाग़ को मिटा डाला!
वर्तमान हिंदी साहित्य के इस महान कवि को शत शत नमन और श्रद्धांजलि!!!

मेरे सीने में नहीं तो, तेरे सीने मे सही
हो कहीं भी आग,लेकिन आग जलनी चाहिए.
सिर्फ़ हंगामा, खड़ा करना मिरा मक़सद नही
सारी कोशिश है,कि ये सूरत बदलनी चाहिए,

इन बन्द कमरों में मेरी सांस घुटी जाती है।खिड़कियां खोलता हूँ तो ज़हरीली हवा आती है।(दुष्यंत कुमार)

(लेखक जामिया हमदर्द यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर हैं)

सग़ीर ए ख़ाकसार

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