……स्वामी विवेकानंद का संगीत

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स्वामी जी के अनुसार ‘संगीत ईश्वर को स्मृति में रखने का सबसे कारगर साधन है। यह सबसे ऊंची कला है। जो इसे समझते हैं वे भक्ति के सबसे ऊंचे सोपान पर हैं।’

ध्रुव गुप्त

भारतीय अध्यात्म के कुछ शिखर पुरुषों में एक नरेन्द्र दत्त उर्फ़ स्वामी विवेकानंद की आध्यात्मिक उपलब्धियों, प्रेरक व्यक्तित्व और विलक्षण भाषण-शैली से हम  परिचित हैं। कम लोगों को पता है कि वे कुशल संगीतज्ञ, गायक, मृदंग वादक और कोमल रचनाकार भी रहे थे।

उनके आध्यात्मिक प्रभामंडल में उनके व्यक्तित्व का यह पक्ष ओझल ही रह गया। किशोरावस्था में उन्होंने गुरु वेणीमाधव अधिकारी से ध्रुपद, उस्ताद अहमद खां से ख्याल गायन और काशी घोषाल से पखावज बजाना सीखा था। गुरु रामकृष्ण परमहंस से उनका  रिश्ता संगीत से ही बना था। एक दिन किशोर नरेन्द्र से दो-तीन भजन सुनकर परमहंस ने उन्हें अपना शिष्य स्वीकार किया।

गजेंद्र नारायण सिंह की ऐतिहासिक किताब ‘महफ़िल’ के अनुसार स्वामी जी ने एक बार ग्वालियर के संगीतज्ञ एकनाथ पंडित के ध्रुपद गायन की पखावज पर संगति की। पंडित जी के आश्चर्य का तब ठिकाना न रहा जब स्वामी जी तानपुरा लेकर स्वयं ध्रुपद गाने लगे।

एक बार संगीत की एक महफ़िल में उन्होंने एक तवायफ से सूरदास का भजन सुनने के बाद उसके पांव छूकर कहा था – ‘अरी मां, मुझे किस लोक में ले गईं आप !’ रचनाकार के रूप में स्वामी जी की कुछ रचनाएं – राग यमन में ‘खंडन भव बंधन, राग बागेश्वरी में ‘नहीं सूर्य नहीं ज्योति’, कहरवा ताल की ठुमरी ‘मुझे वारि बनवारी सैया’ आदि संगीत से जुड़े लोगों की स्मृतियों में अब भी जिंदा हैं। स्वामी जी के अनुसार ‘संगीत ईश्वर को स्मृति में रखने का सबसे कारगर साधन है। यह सबसे ऊंची कला है। जो इसे समझते हैं वे भक्ति के सबसे ऊंचे सोपान पर हैं।’



स्वामी जी की सांगीतिक पृष्ठभूमि का असर उनकी संवाद शैली और भाषण कला पर खूब पड़ा था। उन्हें सुनने के बाद प्रसिद्द दार्शनिक रोमा रोलां ने लिखा – ‘उनके शब्द बीथोवेन की संगीत शैली के समान हैं और उनकी कृतियों में हैण्डल के समूहगानों का लय-साम्य है।’

(लेखक पूर्व आईपीएस अधिकारी हैं,फिलवक्त वो स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं)

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