…अहल ए वतन ! हमने भी लहू दिया है अपना…!!!!

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शहीद अशफाकउल्लाह खान,शहीद राम प्रसाद बिस्मिल,शहीद रोशन सिंह के बलिदान दिवस 19 दिसम्बर पर इण्डो नेपाल पोस्ट की विशेष प्रस्तुति

डॉ खुर्शीद अहमद अंसारी /इण्डो नेपाल पोस्ट के लिए

डॉ खुर्शीद अहमद अंसारी

अश्फाकउल्लाह ख़ान और रामप्रसाद बिस्मिल,दोनों गहरे दोस्त थे।दोनो में अंग्रेजी हुकूमत से बग़ावत और क्रांति के लहू की गर्मी थी भारत की स्वतंत्रता के लिए धर्म परिवर्तन या परावर्तन जैसे शब्दों से ऊपर उठ कर १९ दिसंबर १९२७ को अपने प्राणों की आहुति दे कर अमरत्व का अमृत पिया और शहीद कहलाये।

अश्फाकउल्लाह ख़ान और रामप्रसाद बिस्मिल दोनों गहरे दोस्त एक शकाहारी पंडित और एक मांसाहारी मुसलमान । अशफ़ाक़ इक शायर जो हसरत के नाम से लिखते थे उस स्याही से दर असल अंग्रेजी हुकूमत से बग़ावत और क्रांति के लहू की गर्मी थी कि इन दोनों ने भारत की स्वतंत्रता के लिए धर्म परिवर्तन या परावर्तन जैसे शब्दों से ऊपर उठ कर आज ही के दिन १९ दिसंबर १९२७ को अपने प्राणों की आहुति दे कर अमरत्व का अमृत पिया और शहीद कहलाये।

शाहजहां पुर उत्तर प्रदेश में २२ दिसम्बर १९०० को अशफ़ाक़ खान का जन्म एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ युवावस्था से ही अशफ़ाक़ुल्लाह ख़ान बिस्मिल से बहुत प्रभावित थे और शाहजहाँ पुर में कई बार बिस्मिल से मिलने का प्रयास भी किया परन्तु बिस्मिल ने कोई ध्यान न दिया। अंत में असहयोग आंदोलन के दौरान जब शाहजहाँपुर में बिस्मिल सभा को सम्बोधित कर रहे थे वहाँ अशफाक मिल पाये और अपने जूनून की कहानियाँ सुनायीं और बताया की वो कभी वारिस या हसरत के उपनाम से क्रांतिकारी कविताये लिखते थे।इसके बाद पंडित “बिस्मिल ” और “हसरत अशफ़ाक़ुल्लाह खान ” की दोस्ती ने “काकोरी कांड ” को अंजाम दिया और भारत माता की स्वतंत्रता के लिए हँसते हस्ते आज के दिन के दिन १९ दिसंबर १९२७ को जाम ए शहादत पी लिया और अमर हो गए.

उस समय भी धर्म और जाति की दीवारें खड़ी करने वाले लोग थे लेकिन बिस्मिल की हसरत और हसरत का बिस्मिल ने मिलकर देश के लिए अपनी जान दी और एकता की मिसाल क़ायम की.

रामप्रसाद बिस्मिल , रौशन सिंह और अशफ़ाक़ुल्लाह ख़ान की आज ही के दिन १९ दिसम्बर १९२७ को दी गयी शाहदत को श्रद्धांजलि और नमन। वर्तमान में देश के हालात और माहौल में बेहद याद आ रही है उस एकता और बंधुत्व की जहाँ भारत की आज़ादी में अपनी शहादत से सुर्ख रंग शामिल करने वाले जियालों का न कोई धर्म न ,ज़ात न कोई तफ़रीक़ थी सिवाए वतन अज़ीज़ की स्वतंत्रता थी

जिसके लिए उन्होंने अपनी आखिरी सांसे और आखिरी लहू का क़तरा भी निछावर कर दिया। आज फिर उनकी शाहदत को याद करते हुए दुनिया के सबसे खूबसूरत संविधान को बचाने की शपथ लें और उसकी हर बात को शब्दशः यथार्थ करने का संकल्प लें। उन जियालों को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि अर्पित है।

मिरा लहू भी है शामिल तिरी आज़ादी में
जान तुझ पर निसार हम ने किया
तोड़ ककर क़ैद ओ बंद मज़हब की
गुलशन ए हिन्द को आबाद किया

तुम फ़रामोश मुझे कर दो पर ख़याल रखो
तुम्हारी सांस की हर लय में लहू मेरा भी है।

जय हिन्द ,इन्क़िलाब ज़िंदाबाद

(लेखक जामिया हमदर्द यूनिवर्सिटी दिल्ली में एसोसिएट प्रोफेसर हैं)

सग़ीर ए खाकसार

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