…माड़-भात का वह रोमांच और बचपन की यादें!

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प्रेशर कुकर के इस दौर में माड़-भात का रोमांच खो गया है। गैस पर कूकर में एक सीटी मारो और भात तैयार। माड़ का कहीं अता-पता नहीं। थोड़ा माड़ निकाल भी लो उसमें स्वाद या गंध नहीं। आज की पीढ़ी को शायद विश्वास नहीं होगा कि कभी चूल्हे पर चढ़े भात और माड़ की खुशबू का भी तिलिस्म हुआ करता था।

ध्रुव गुप्त

(लेखक रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी हैं ,फिलवक्त स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं)

अभी कुछ ही दशकों पहले की कोई शाम याद करिए जब घर में भात पकता था और उसकी खुशबू से घर आंगन ही नहीं, आस-पड़ोस भी महक उठता था। भात अगर नए,मोटे, उसना चावल का हो तो उसका सबसे बड़ा आकर्षण होता था उससे निकलने वाले माड़ की आदिम गंध। भात पक जाने के बाद तसले से माड़ निकलते देखना हमारे बचपन के कुछ सबसे प्रिय दृश्यों में एक हुआ करता था।

हम बच्चे चूल्हे के आसपास एकत्र होकर ज़रा से भात के साथ गर्म, गाढ़े माड़ के अपने हिस्से की प्रतीक्षा करते थे। कटोरा भरकर माड़-भात में एक चुटकी नमक डाल कर उसे चाय की तरह सुड़कने का आनंद आज तक नहीं भूला है। उसमें चूल्हे पर पक रही कलछुल भर दाल भी मिला दें तो उसके स्वाद का सानी नहीं। प्रेशर कुकर के इस दौर में माड़-भात का रोमांच खो गया है। गैस पर कूकर में एक सीटी मारो और भात तैयार। माड़ का कहीं अता-पता नहीं। थोड़ा माड़ निकाल भी लो उसमें स्वाद या गंध नहीं।

आज की पीढ़ी को शायद विश्वास नहीं होगा कि कभी चूल्हे पर चढ़े भात और माड़ की खुशबू का भी तिलिस्म हुआ करता था। रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों ने अनाजों के मामले में हमें आत्मनिर्भर और किचन के आधुनिकीकरण ने घर की रसोई को सुविधाजनक ज़रूर बना दिया है, लेकिन भोजन के ढेर सारे जादुई लम्हे भी हमसे छीन लिए है। भोजन का वह सुख अब यादों में ही रह गया है – मां के साये, भात की खुशबू वाली शाम / दादी की परियों की कहानी याद रही !

सग़ीर ए खाकसार

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