बिहार का चुनाव परिणाम,हारकर भी जीते तेजस्वी

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यशोदा श्रीवास्तव/वरिष्ठ पत्रकार

…तो क्या मान लिया जाय कि बिहार का चुनाव परिणाम 15 साल पुराने जंगल राज की पराजय है या युवा वोटरों का भाजपा पर भरोसा? बिहार चुनाव परिणाम पर नजर रखने वाले विष्लेषकों का अलग नजरिया हो सकता है लेकिन किसी के लिए भी इस बात से इनकार करना मुश्किल होगा कि अब बेरोजगारी,मंहगाई, भ्रष्टाचार आदि मुद्दा चुनाव में असरकारी नहीं रह गया। (,यदी बिना गोलमाल के बिहार का चुनाव परिणाम है तो?) इन सारे मुद्दों पर राष्ट्र वाद और हिंदुत्व भारी पड़ने लगा है और नहीं लगता कि आने वाले और कुछ वर्षों में यह मद्धिम पड़ने वाला है।

बिहार चुनाव परिणाम से परिवर्तन की आस लगाए तमाम लोग हैरान हुए होंगे और इसके लिए अपने अपने तरीके से किसी न किसी को कोस रहे होंगे।लेकिन पिछले दो तीन चुनावों से साफ देखने को मिल रहा है वोटर चाहे युवा हो या बुजुर्ग या प्रौढ़,निश्चित ही इनमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहचान हिंदुत्व की रक्षा करने वाले रक्षक के रूप में उभरी है। भारत का विशाल हिंदू जनमानस उनके नेतृत्व में स्वयं को गौरान्वित मानने लगा है। विशाल वोटरों के इस वर्ग कि ऐसी एक पक्षीय सोच उनको जरूर हैरान करती है जिन्हें रोजगार, नौकरी और भूख से निपटने के जतन को लेकर चिंता है, हिंदुत्व के इस तेज बयार में जनसरोकार के ये मुद्दे उड़ सा गए।

बिहार का जो चुनाव परिणाम आया है यदि यही सच है तो भी महज एक चुनावी हेलीकॉप्टर के पीछे 30-30 हेलीकॉप्टर उड़ानें वालों की बहुत खुश फहमी वाली जीत नहीं है।एनडीए में बीजेपी यद्यपि कि 2015 के 54 सीटों के मुकाबले 20 सीटें अधिक हासिल करने में कामयाब हुई लेकिन उसकी प्रमुख सहयोगी जदयू का तो बड़ा नुकसान हुआ।राजनीतिक विष्लेषक अब यह सवाल उठाने लगे कि क्या अब भी मुख्यमंत्री नीतीश ही होंगे?बिहार बीजेपी के नेताओं की ओर से बीजेपी का मुख्यमंत्री की मांग शुरू भी हो गई है। नीतीश कुमार को नैतिकता की दुहाई भी दी जाने लगी है।बीजेपी की ओर से अभी तक नीतीश के बदलने की बात नहीं सोची गई। बीजेपी नीतीश के बदलने का पाप लेना भी नहीं चाहेगी लेकिन अपने संगठनों की ओर से नीतीश पर नैतिकता की दुहाई का इतना बोझ लाद देगी कि नीतीश उस बोझ से पार पाने के लिए कुछ सोचने को विवश हो सकते हैं जिसकी संभावना अभी न भी हो लेकिन कभी के लिए इनकार नहीं किया जा सकता।

अब बात करते हैं इस अप्रत्याशित चुनाव नतीजों पर।बिहार के चुनाव का जब शंखनाद हुआ तब वहां विपक्ष दमदार मुकाबले के लायक भी नहीं था।तेजस्वी अकेले थे।उनके साथ 2015 की तरह नीतीश नहीं थे।उनके पिता लालू भले पाबंद थे लेकिन बिहार में अस्वीकार्य नहीं थे। अर्थात लालू जैसे दमदार और संपूर्ण बिहार में स्वीकार्य नेता के रूप में एक पिता का मजबूत हाथ उनके ऊपर था। तीस सीटों के समझौते के साथ कांग्रेस तब भी थी। नतीजा नीतीश के साथ आरजेडी गठबंधन की सरकार बनी थी।आरजेडी के मुकाबले जदयू को दस सीटें कम मिलने पर भी मुख्यमंत्री नीतीश ही थे। कुछ महीने बाद ही “अपमान की घूंट”के नाम पर वे अपने पुराने कुनबे एनडीए में लौट गए।उसी एनडीए में जिसमें वे कभी न लौटने की बात करते थे। एनडीए में वापस जाकर भी वे मुख्यमंत्री बने रहे। तब बीजेपी व एनडीए की सीटें क्रमशः70(जदयू)और 54(बीजेपी)थी।

2020 के इस चुनाव में निसंदेह 2015 की तरह तेजस्वी के साथ कोई दमदार हाथ नहीं था इस वजह से विष्लेषक एनडीए की एकतरफा जीत को लेकर मुत्मइन थे। 70 सीट लेकर राहुल गाधी दुबारा उनके साथ आने पर राजी हुए तो कम्युनिस्टों को 30 सीटों के साथ अपने कुनबे के साथ जोड़ लिया। छोटे छोटे कुछ नितांत क्षेत्रीय नेता भी साथ आए। फिर भी आरजेडी के ऐसी दमदार प्रदर्शन को लेकर कोई विष्लेषक दावा करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। लेकिन चुनाव प्रचार का दौर जैसे जैसे अपने रौ पर आता गया,विश्व की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करने वाली बीजेपी के पसीने छूटते गए। उस 31 साल के युवा तेजस्वी ने ऐसी चुनावी फिजा तैयार की जिसमें हर विष्लेषक एनडीए के उड़ जाने की भविष्यवाणी करने लगा। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से लगायत बीजेपी के बड़े बड़े नेता चुनाव परिणाम को लेकर आशंकित हो उठे।खुद पीएम मोदी को दर्जन भर सभाएं करने को मजबूर होना पड़ा और इनके दो दर्जन से अधिक केंद्रीय मंत्री बिहार के हर कोने में डेरा डाल दिए। पीएम ने अपने संबोधनों में डबल युवराज, जंगल राज के युवराज जैसे तीखे शब्द बाण चलाए तो केंद्रिय मंत्री लोग सांप्रदायिक उभार के भाषण खूब दिए। इसके मुकाबले तेजस्वी का रोजगार और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर ही जोर रहा। तेजस्वी की सभाओं की भीड़ उनके सत्ता में वापसी की गवाह बन रही थी। अब सवाल है कि फिर अचानक क्या हुआ कि तेजस्वी की ताजपोशी होते होते रह गई? पिछले दिनों बिहार चुनाव पर मेरा एक लेख प्रकाशित हुआ था जिसका सार था कि पप्पु यादव का गठबंधन और चिराग पासवान सत्ता की गणित गड़बड़ा सकते हैं।अब जब तमाम आरोप प्रत्यारोप के बीच बिहार का चुनाव परिणाम आ चुका है तब मेरे पूर्व का किया आकलन भी काबिलेगौर है। बात चिराग पासवान की करते हैं। केंद्र में एनडीए का घटक  लोकजनशक्ति पार्टी के उत्तराधिकारी सांसद चिराग पासवान खुलकर नीतीश के खिलाफ मोर्चा खोल दिए।नीतीश का ऐसा खुल्ला विरोध कभी स्व.रामबिलास पासवान ने भी नहीं किया होगा। चिराग पासवान ने जदयू के उम्मीदवारों के खिलाफ गिन गिन कर अपनी पार्टी लोजपा का उम्मीदवार खड़ा कर नीतीश को ढंग से कमजोर कर दिया।खुद भले ही दो से एक सीट तक रह गए लेकिन नीतीश को पिछले चुनाव के मुकाबले 28 सीट पीछे ढकेल दिया। नीतीश को कमजोर करने की उनकी पहली ख्वाहिश तो पूरी हुई। नीतीश को मुख्यमंत्री न बनने देने की उनकी दूसरी ख्वाहिश पूरी होना अभी बाकी है। कहना न होगा कि जदयू की सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारकर चिराग ने नीतीश को नैतिकता के आधार पर मुख्यमंत्री बनने न बनने की सोच के लिए मजबूर तो कर ही दिया।

अब आरजेडी गठबंधन कैसे कमजोर हुआ,इस पर गौर करते हैं। कई दलों के साथ एक गठबंधन बनाकर चुनाव मैदान में उतरे पप्पू यादव स्वयं तो अपनी भी सीट नहीं निकाल पाए लेकिन इनके उम्मीदवारों का मिला एक एक वोट आरजेडी के उम्मीदवारों की हार का कारण जरूर बन गया।आरजेडी के करीब 18 उम्मीदवारों की हार का अंतर 40 वोटों से 1200 वोटों के बीच रहा। इन 18 उम्मीदवारों की हार की वजह पप्पू यादव के गठबंधन को ठहराया जा रहा है। कांग्रेस जिसकी कि पिछले विधानसभा में 27 सीटें थी इस बार घटकर 19 रह गई।जबकि वह पिछले चुनाव में 40 के मुकाबले इस बार 70 सीटों पर लड़ी थी। राजनीतिक विष्लेषक कांग्रेस को इतनी सीटें देना आरजेडी की गलती बता रहे हैं।मैं इसे नहीं मानता।शिद्दत से कहना चाहूंगा कि भारत में कांग्रेस को कमजोर साबित करने की बड़ी साजिश का यह हिस्सा है। मानता हूं कि किसी भी राजनीतिक दल को चुनाव लड़ने का हक है, ओवैसी की पार्टी को भी,लेकिन ओवैसी साहब अपने वालिद के जमाने से ही अपने गृह प्रदेश में परंपरागत महज सात सीटों पर चुनाव लड़ते आ रहे हैं लेकिन यूपी या आंध्रप्रदेश के बाहर के चुनावों में वे 100–50 सीटों से कम पर नहीं लड़ते?बिहार में कांग्रेस उम्मीदवारों के खिलाफ ओवैसी के अपने उम्मीदवार खड़ा करने के पीछे का कारण भी यूं ही नहीं है? आरजेडी के साथ 30 सीटों पर लड़कर कम्युनिस्टों का 16 सीटें जीत लेना इस बात का संकेत है कि बिहार में बदलाव की बयार चहुंओर थी। चुनाव परिणाम पर सवाल खड़े करना अनायास नहीं है।कई सीटों पर आरजेडी या उसके गठबंधन के उम्मीदवारों को जीत की बधाई देने के बाद बीजेपी उम्मीदवारों को जीत का प्रमाणपत्र देने का आरोप भी खूब लगा।आरजेडी के प्रवक्ता मनोज झा का तो बड़ा आरोप है कि आरजेडी गठबंधन के निर्वाचित 119 विधायकों में से 9 विधायकों को हरा दिया गया। यह सच है कि बिहार विधानसभा का जो चुनाव परिणाम आया है, देश ऐसा सुनने को तैयार नहीं था लेकिन कोरोना काल की दुश्वारियां और परदेश से श्रमिकों के लंबी दूरी तक की पदयात्रा से उपजी पीड़ा को जनमानस के पटल से गायब करने के लिए उसे सत्ता पक्ष की माफिक चुनाव परिणाम सुनना ही पड़ा क्योंकि जनादेश ही सरकारों की लोकप्रियता या नाराजगी का पैमाना होता है। 

(यह लेखक के निजी विचार हैं)

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