अस्थिरता ही नेपाल की नियति

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नेपाल के राजनीतिक इतिहास को देखें तो राजशाही खत्म होने के बाद से यहां अबतक सरकार सरकार का ही खेल चल रहा है। यानि चुनी हुई किसी सरकार ने अपना कार्यकाल नहीं पूरा किया

यशोदा श्रीवास्तव

:नेपाल में जो कुछ हुआ वह न. तो चौकाने वाला है और न ही अप्रत्याशित। देखा जाय तो यह 1994 के स्व.गिरिजा प्रसाद कोइराला के शासनकाल की पुनरावृत्ति है। स्व.कोइराला ने भी अपनों से आजिज आकर संसद भंग कर दिया था और आज ओली  भी अपनों से आजिज आकर नेपाल को मध्यावधि चुनाव में झोकने को मजबूर हुए।
हां अगर स्व.कोइराला के समय की तरह उच्च न्यायालय ने यदि संसद भंग करने के खिलाफ दाखिल कई याचिकाओं पर निर्णय सुनाया तो ओली की मध्यावधि चुनाव की मंशा धरी रह जाएगी। नेपाल का नया लोकतांत्रिक संविधान संसद के विघटन को लेकर खामोश है।इसी आधार पर मध्यावधि चुनाव के विरोधियों ने न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है। गेंद उच्च न्यायालय के पाले में है। 
ओली सरकार अल्पमत में नहीं थी लेकिन उनका उस अध्यादेश का विरोध उनकी ही पार्टी में जबरदस्त था जिसके जरिए उन्हें अपने चहेतों को उपकृत करने का एकतरफा अधिकार हासिल था।सरकार में ही तमाम लोग इस अध्यादेश के वापसी की मांग पर अड़े थे।संसद में इस अध्यादेश के खिलाफ वोटिंग की मांग जोर पकड़ रही थी।ओली जानते थे कि यदि ऐसा हुआ तो उनकी महत्वकांक्षा को पूर्ण करने वाले अध्यादेश का धड़ाम होना तय है। इसी तरह चीन के प्रति उनके अतिवादी लगाव से पार्टी के भीतर का वह तबका छुब्द था जो नेपाल के लिए भारत और चीन से बराबर के संबंध के पक्षधर थे।चीन को खुश करने के लिए ओली का भारत के खिलाफ बयानबाजी भी ओली सरकार में अंर्तकलह की वजह रहा है।

नेपाल के राजनीतिक इतिहास को देखें तो राजशाही खत्म होने के बाद से यहां अबतक सरकार सरकार का ही खेल चल रहा है। यानि चुनी हुई किसी सरकार ने अपना कार्यकाल नहीं पूरा किया जिसकी शुरुआत प्रथम लोकतांत्रिक चुनाव में कम्युनिस्ट सरकार के प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल प्रचंड के मात्र नौ महीने में ही पीएम पद से स्तीफा देने के बाद हुई। हर सरकार के आने जाने के अपने अपने कारण रहे। अब तो आम धारणा बन गई कि अस्थिरता ही नेपाल की नियति है।

   ओली को क्यों देना पड़ा स्तीफा

2017 में नेपाल में पहली बार आम चुनाव हुआ जिसे नए संविधान के तहत लोकतांत्रिक चुनाव कहा गया।चुनाव के पहले नेकपा माओवादी ,जिसका अध्यक्ष प्रचंड थे,और नेपाली कांग्रेस की मिली जुली सरकार थी जिसके पीएम शेरबहादुर देउबा थे। यह सरकार जब अपना कार्यकाल पूरा कर रही थी तब नेपाल के राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा गर्म थी कि आम चुनाव नेपाली कांग्रेस और नेकपा माओवादी मिलकर लड़ेंगे,तभी अचानक ओली के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट का दूसरा धड़ा एमाले और नेकपा माओवादी एक हो गए और गठबंधन कर तयशुदा सीटों पर चुनाव लड़े। प्रचंड और ओली की संयुक्त कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में आ गई।आगे चलकर दोनों कम्युनिस्ट पार्टियां एक हो गई।ओली पार्टी के पूर्णकालिक अध्यक्ष और पीएम थे ही,प्रचंड इस सत्ता रूढ़ दल के कार्यकारी अध्यक्ष बन गए।

लेकिन बात इतनी ही तो थी नहीं। सवाल फिफ्टी फिफ्टी का भी था। ओली सरकार के ढाई साल बीतने के बाद प्रचंड अपनी बारी की प्रतीक्षा बड़े ही धैर्य पूर्वक करते रहे। इसी बीच ओली की तबियत बिगड़ गई।उन्हें अपने दूसरे किडनी के आपरेशन के लिए अस्पताल में दाखिल होना पड़ गया।अब प्रचंड के सामने चुपचाप और धैर्य रखने के सिवा कोई चारा नहीं था सो उन्होंने किया।करीब ढाई महीने बाद ओली स्वस्थ होकर सरकार चलाने की स्थित में आ गए।उम्मीद थी कि ओली स्वास्थ्य कारणों के बहाने प्रचंड को सत्ता सौंपने की घोषणा कभी भी कर सकते हैं।दिन, महीना बीतता रहा लेकिन न तो यह घड़ी आई और न ही ओली की ओर से कोई संकेत।यहीं से प्रचंड और ओली के बीच कड़वाहट शुरू हुई।

कई दौर की वार्ता हुई पर नहीं निकला हल

पीएम ओली और प्रचंड के बीच पिछले पांच महीने से तनातनी चल रही थी।इस बीच ओली के कट्टर समर्थक बामदेव गौतम,माधव नेपाल, झलनाथ खनाल, नारायण काजी श्रेष्ठ सहित सत्ता रूढ़ दल के कई बड़े नेता ओली के विरोध में खड़े हो गए जिसमें कुछ नाम तो ऐसे हैं जो ओली और प्रचंड के बीच मचे घमासान में पीएम पद के लिए अपनी गोटी बिछा रहे थे। ओली और प्रचंड के बीच की तनातनी खत्म करने के लिए कई बार संगठन और संसदीय समिति की बैठक भी हुई। इन बैठकों में ओली हिस्सा लेने से बचते रहे और अंत में उन्होंने सरकार और संगठन से हटने से साफ इनकार कर दिया।दरअसल इसके बाद से ही मध्यावधि चुनाव के कयास लगाए जाने लगे थे। संगठन और संसदीय समिति में ओली दिनोदिन कमजोर होते गए।उनपर लगातार स्तीफे का दबाव बढ़ता गया।

सत्ता रूढ़ दल के ही वरिष्ठ नेता व पूर्व पीएम माधव कुमार नेपाल,बामदेव गौतम तथा पूर्व पार्टी अध्यक्ष झलनाथ खनाल ने पीएम ओली पर अक्षमता का आरोप लगाकर पद छोड़ने की मांग तेज कर दी।ओली से सबसे पहले स्तीफा मांगने वाले प्रचंड ने तो एक बार अपनी और ओली की लड़ाई को भारत बनाम चीन कर दिया था।चीनी परस्त अपनी पूर्व के छवि के इतर प्रचंड भारत के साथ खड़े नजर आए।ओली ने कहा था कि नेपाल में भारतीय राजदूतावास उनकी सरकार गिराने की साजिश रच रहा है। ओली के इस बयान की आलोचना करते हुए प्रचंड ने साफ कहा था कि नेपाल की सरकार को लेकर ओली का भारत पर तोहमत के पीछे अपनी नाकामी से जनता का ध्यान भटकाना है। अपनी सरकार बचाने के लिए ओली ने भारत को लपेटते हुए कई बार राष्ट्र वाद का लबादा भी ओढ़ा।

 ओली के बाद कौन पर भी हुआ मंथन

काठमांडू के राजनीतिक गलियारों में पिछले एक सप्ताह से ही ओली सरकार को लेकर कुछ चौंकाने वाली खबर की सुगबुगाहट चल रही थी।ओली के बाद  “कौन” पर भी मंथन हुआ।प्रचंड के नाम पर हो रही चर्चा में अगर मगर किंतु परंतु की भरमार रही। इस पर भी चर्चा चल रही थी कि ओली की पार्टी के भीतर में जो उनके खिलाफ हैं, क्या वे प्रचंड के नाम पर सहमत होंगे? और इससे बड़ी बात यह कि नेपाली कांग्रेस को किस  मुहं से साधेंगे प्रचंड? नेपाली कांग्रेस आम चुनाव के वक्त प्रचंड का साथ छोड़ना क्या भूली होगी?

जहां तक मधेशी दलों की बात है तो इनकी राजनीति बे पेंदी के लोटा जैसी है। सारे मधेशी दल ओली का विरोध कर रहे हैं लेकिन अगर इन्हें ओली सरकार में ही शामिल होने का आफर मिले तो इन्हें यह स्वीकारने में जरा भी हिचक नहीं होगी।अपनी बात सिद्ध करने के लिए इनके पास ढेरों तर्क होते हैं।जैसे तराई और मधेश के हित में यह फैसला मजबूरी में लेना पड़ा, तराई के बीस जिलों की करीब 90 लाख आवादी का भारत से रोटी बेटी का रिश्ता है। इस रिश्ते को बचाए रखना जरूरी है आदि।

अंदरखाने की खबर है की ओली के बाद “कौन” को लेकर ओली विरोधियों में ही एक राय नहीं बन सकी।इसे लेकर भारी असमंजस और अंतर्विरोध था,संसद के विघटन की सिफारिश की यह भी एक वजह थी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व नेपाल मामलों के जानकार हैं,ये उनके अपने विचार हैं)

सग़ीर ए खाकसार

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