…..वो न आएंगे पलट के !8जनवरी,बिमल दा की पुण्यतिथि पर विशेष

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उनकी फिल्मों में मानवीय संवेदनाओं और रूमानियत का ऐसा नाज़ुक अहसास होता था कि बात सीधे दिल में उतर जाए। उनकी फिल्मों का सामाजिक सरोकार व्यक्ति से कटा हुआ नहीं, व्यक्तिगत सुख-दुख का ही विस्तार है।

ध्रुव गुप्त

(लेखक रिटायर्ड आइपीएस अधिकारी हैं फिलवक्त स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं)

हिंदी सिनेमा के महानतम फिल्मकारों में एक बिमल राय कला और व्यावसायिक फिल्मों के बीच की सबसे मज़बूत कड़ी माने जाते हैं। अपनी फिल्मों में उन्होंने तिलिस्म नहीं यथार्थ ही बुना, लेकिन उनका वह यथार्थ रूखा और लाउड नहीं था। उनमें मानवीय संवेदनाओं और रूमानियत का ऐसा नाज़ुक अहसास होता था कि बात सीधे दिल में उतर जाए। उनकी फिल्मों का सामाजिक सरोकार व्यक्ति से कटा हुआ नहीं, व्यक्तिगत सुख-दुख का ही विस्तार है।

1935 में कलकत्ता के न्यू थियेटर्स में सहायक कैमरामैन और सहायक निर्देशक के रूप में अपना फिल्मी सफ़र शुरू करने वाले बिमल दा को मुंबई आने के बाद देशव्यापी मान्यता मिली फिल्म ‘दो बीघा जमीन’ से। किसानों की व्यथा और संघर्ष पर आधारित इस कालजयी फिल्म ने एक संवेदनशील निर्देशक के रूप में उन्हें स्थापित कर दिया। ‘दो बीघा जमीन’ को केन्स फिल्म फेस्टिवल में पुरस्कृत भी किया गया।

बिमल दा की अन्य महत्त्वपूर्ण फिल्में हैं-परिणीता, परख, देवदास, बंदिनी, हमराही, नौकरी, बिराज बहू, बाप बेटी, यहूदी, मधुमती, सुजाता, बंदिनी, और प्रेमपत्र। दिलीप कुमार की ‘ट्रेजेडी किंग’ की छवि उनकी फिल्मों ‘देवदास’ और ‘यहूदी’ से ही बनी। उन्होंने ‘काबुलीवाला’, ‘उसने कहा था’, ‘बेनज़ीर’ जैसी कुछ फिल्मों का निर्माण भी किया था। श्रेष्ठ निर्देशन और श्रेष्ठ फिल्मों के लिए 6 राष्ट्रीय और 11 फिल्मफेयर पुरस्कार हासिल करने वाले बिमल दा उन फिल्मकारों में थे जिन्हें प्रतिभाओं की पहचान थी। ऋषिकेश मुखर्जी, ऋत्विक घटक, कमल बोस, नबेंदु घोष, सलिल चौधरी, गुलज़ार जैसी प्रतिभाएं सिनेमा को उन्हीं की देन हैं।

आज बिमल दा की पुण्यतिथि पर उन्हें श्रद्धांजलि !

सग़ीर ए खाकसार

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