पत्रकारिता के युग पुरुष :प्रथम स्वाधीनता संग्राम के जांबाज़ पत्रकार मौलाना मोहम्मद बाकीर देहलवी

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देश के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के जांबाज़ पत्रकार मौलाना मोहम्मद बाकीर देहलवी की कहानी जिन्हें अपनी निर्भीक पत्रकारिता के लिये अंग्रेजों द्वारा मौत की सज़ा दी गई थी

ध्रुव गुप्त

देश की मीडिया अभी अपनी विश्वसनीयता के सबसे बड़े संकट से रूबरू है। इलेक्ट्रोनिक मीडिया हो या प्रिंट मीडिया, उसपर सत्ता और पैसों का दबाव वैसा कभी नहीं रहा था जैसा आज दिखता है। वज़ह साफ़ है। चैनल और अखबार चलाना अब अब कोई मिशन या आन्दोलन नहीं रहा। राष्ट्र के पास ही जब कोई मिशन, कोई आदर्श, कोई गंतव्य नहीं तो मीडिया के पास भी क्या होगा ? ‘जो बिकता है, वही दिखता है’ के इस दौर में पत्रकारिता अब खालिस व्यवसाय है। उसपर अब किसी लक्ष्य के लिए समर्पित लोगों का नहीं, बड़े और छोटे व्यावसायिक घरानों का लगभग एकच्छत्र कब्ज़ा है। देश के मुट्ठी भर जो लोग मीडिया को लोकचेतना का आईना बनाना चाहते हैं, उनके आगे साधनों के अभाव में प्रचार-प्रसार और वितरण का बड़ा संकट है। कुल मिलाकर मीडिया का जो वर्तमान परिदृश्य है, उसमें दूर-दूर तक कोई उम्मीद नज़र नहीं आती।

वैसे इस देश ने अभी पिछली सदी में आज़ादी की लड़ाई के दौरान पत्रकारिता का स्वर्ण काल देखा है। देश की आज़ादी, समाज सुधार, धार्मिक सहिष्णुता और जन-समस्याओं के समाधान को समर्पित अखबारों और पत्रकारों की सूची बहुत लंबी रही है। जनपक्षधर पत्रकारिता के उस दौर की शुरुआत उन्नीसवी सदी में उर्दू के एक अखबार से मानी जाती है।

आम आदमी के मसले उठाने वाला सबसे पहला उर्दू अखबार ‘जम-ए-ज़हांनुमा’ वर्ष 1822 में कलकत्ता से निकला था। उसके पंद्रह साल बाद 1837 में दिल्ली से देश का दूसरा उर्दू अखबार निकला। अखबार का नाम था ‘उर्दू अखबार दिल्ली’ और उसके यशस्वी संपादक थे मौलाना मोहम्मद बाक़ीर देहलवी। ‘उर्दू अखबार दिल्ली’ ज्वलंत सामाजिक मुद्दों पर जनचेतना जगाने और स्वाधीनता संग्राम की गतिविधियों से आमजन को जोड़नेवाला देश का पहला अखबार था और मौलवी बाक़ीर पहले ऐसे निर्भीक पत्रकार जिन्होंने हथियारों के दम पर नहीं, कलम के बल पर आज़ादी की लड़ाई लड़ी। वे देश के पहले और शायद आखिरी पत्रकार थे जिन्हें स्वाधीनता संग्राम में प्रखर और क्रांतिकारी भूमिका निभाने के लिए अंग्रेजी हुकूमत ने मौत की सज़ा दी थी।

1790 में दिल्ली के एक रसूखदार घराने में पैदा हुए मौलवी मोहम्मद बाक़ीर देहलवी चर्चित इस्लामी विद्वान और फ़ारसी, अरबी, उर्दू और अंग्रेजी भाषाओं के जानकार थे। उस दौर के एक प्रमुख शिया विद्वान मौलाना मोहम्मद अकबर अली उनके वालिद थे। मदरसों में धार्मिक शिक्षा हासिल करने के बाद मौलवी बाक़ीर ने दिल्ली कॉलेज से अपनी पढ़ाई पूरी की। वे पहले उसी कॉलेज मे फ़ारसी के शिक्षक बने और फिर आयकर विभाग मे तहसीलदार।

उनका मन इन कामों में नहीं लगा। शायद वे इन कामों के लिए नहीं बने थे। 1836 में जब सरकार ने प्रेस एक्ट में संशोधन कर लोगों को अखबार निकालने का अधिकार दिया तो उन्हें अपना गन्तव्य समझ आ गया। 1837 मे उन्होंने देश का दूसरा उर्दू अख़बार ‘उर्दू अखबार दिल्ली’ के नाम से निकाला जो उर्दू पत्रकारिता के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुआ। इस साप्ताहिक अखबार के माध्यम से मौलवी बाक़ीर ने सामाजिक मुद्दों पर लोगों को जागरूक करने के अलावा अंग्रेजों की साम्राज्यवादी और विस्तारवादी नीति के विरुद्ध जमकर और लगातार लिखा।

दिल्ली और आसपास के इलाके में अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ जनमत तैयार करने में इस अखबार की सबसे बड़ी भूमिका रही थी। अख़बार की ख़ासियत यह थी कि यह कोई व्यावसायिक आयोजन या व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा का हथियार नहीं, बल्कि एक मिशन था। अखबार के खर्च के लिए उस ज़माने में भी उसकी कीमत दो रुपए रखी गई थी। अखबार छप और बँट जाने के बाद जो पैसे बच जाते थे, उसे गरीबों और ज़रूरतमंदों में बाँट दिया जाता था।

मौलवी बाक़ीर हिन्दू-मुस्लिम एकता और अपने देश की साझा सांस्कृतिक विरासत के पक्षधर रहे थे। 1857 में देश में स्वाधीनता संग्राम के उभार को कमज़ोर करने के लिए अंग्रेजों ने दिल्ली में सांप्रदायिक दंगे भड़काकर हिन्दू-मुस्लिम एकता में सेंध लगाने की एक बड़ी साज़िश रची थी। उन्होंने जामा मस्जिद के आसपास बड़े-बड़े पोस्टर चिपकाकर मुसलमानों से हिन्दुओं के खिलाफ़ जेहाद छेड़ने की अपील की। उनकी दलील यह थी कि ‘साहिबे किताब’ के मुताबिक मुसलमान और ईसाई स्वाभाविक दोस्त हैं। बुतपरस्त हिन्दू कभी मुसलमानों के शुभचिंतक नहीं हो सकते।

पोस्टरों में यह सफाई भी दी गई थी कि अंग्रेजों द्वारा अपनी फौज के लिए निर्मित कारतूसों में सूअर की चर्बी का इस्तेमाल बिल्कुल नहीं किया गया है। इशारा साफ था कि उनमें गाय की चर्बी का प्रयोग होता था। मौलवी बाक़ीर ने उन साजिशों को बेनकाब करने में कोई कसर न छोड़ी। अपने अखबार में उन्होंने लिखा – ‘अपनी एकता बनाए रखो ! याद रखो, अगर यह मौक़ा चूक गए तो हमेशा के लिए अंग्रेजों की साजिशों, धूर्तताओं और दंभ के शिकार बन जाओगे। इस दुनिया में तो शर्मिंदा होगे ही, यहाँ के बाद भी मुँह दिखाने लायक नहीं रहोगे।’

उस दौर में जब देश में कोई सियासी दल नहीं हुआ करता था, इस अखबार ने लोगों को जगाने और उन्हें आज़ादी के पक्ष में संगठित करने में अहम भूमिका निभाई थी। 1857 मे जब स्वतंत्रता सेनानियों ने आखिरी मुग़ल सम्राट बहादुर शाह जफ़र के नेतृत्व में अंग्रेज़ो के ख़िलाफ़ बग़ावत का बिगुल फूँक दिया तो मौलवी बाक़ीर हाथ में कलम लेकर इस लड़ाई में शामिल हुए। उन्होने तबतक अंग्रेजों की नज़र में चढ़ चुके अपने अखबार का नाम बदल कर बहादुर शाह जफ़र के नाम पर ‘अख़बार उज़ ज़फ़र’ कर दिया और उसके प्रकाशन का दिन भी परिवर्तित कर दिया।

सग़ीर ए ख़ाकसारo

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